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Kartik Poornima katha : वर्ष 2024 में 15 नवंबर, दिन शुक्रवार को कार्तिक पूर्णिमा मनाई जा रही है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही गुरु नानक देव की जयंती भी मनाई जाती है। धार्मिक मान्यतानुसार यह एक खास अवसर है, जो दीपावली के बाद पड़ता हैं तथा घरों में दीयों की रौशनी करके यह त्योहार मनाया जाता है। इस दिन श्रीहरि विष्णु यमुना तट पर स्नान कर दिवाली मनाते हैं। कार्तिक पूर्णिमा पर नदी स्नान करने का विशेष महत्व है। इस खास तिथि पर भगवान भोलेनाथ का परिवार सहित तथा श्री विष्णु-लक्ष्मी जी के पूजन का विशेष महत्व है।
आइए इस खास मौके पर पढ़ें कार्तिक मास की पूर्णिमा या देव दिवाली की पौराणिक कथा…
Highlights
- कार्तिक पूर्णिमा 15 नवंबर को।
- कार्तिक पूर्णिमा क्यों मनाई जाती है?
- कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन क्या करना चाहिए?
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कथा-
कार्तिक पूर्णिमा की पौराणिक कथा के अनुसार तारकासुर नाम का एक राक्षस था। उसके तीन पुत्र थे- तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली…। भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया। अपने पिता की हत्या की खबर सुन तीनों पुत्र बहुत दुखी हुए। तीनों ने मिलकर ब्रह्मा जी से वरदान मांगने के लिए घोर तपस्या की। ब्रह्मा जी तीनों की तपस्या से प्रसन्न हुए और बोले कि मांगों क्या वरदान मांगना चाहते हो ?
तीनों ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्मा जी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने को कहा। तीनों ने मिलकर फिर सोचा और इस बार ब्रह्मा जी से तीन अलग नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा, जिसमें सभी बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में घूमा जा सके।
एक हजार साल बाद जब हम मिलें और हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं, और जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्मा जी ने उन्हें ये वरदान दे दिया। तीनों वरदान पाकर बहुत खुश हुए। ब्रह्मा जी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। तारकक्ष के लिए सोने का, कमला के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया। तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया।
इंद्र देवता इन तीनों राक्षसों से भयभीत हुए और भगवान शंकर की शरण में गए। इंद्र की बात सुन भगवान शिव ने इन दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया। इस दिव्य रथ की हर एक चीज देवताओं से बनी। चंद्रमा और सूर्य से पहिए बने। इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के चाल घोड़े बने। हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बने। भगवान शिव खुद बाण बने और बाण की नोक बने अग्निदेव।
इस दिव्य रथ पर स्वयं भगवान शिव सवार हुए। भगवानों से बनें इस रथ और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जैसे ही ये तीनों रथ एक सीध में आए, भगवान शिव ने बाण छोड़ तीनों का नाश कर दिया। यह वध कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को हुआ था, इसीलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से जाना जाने लगा। इसी वध के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा। तथा इन राक्षसों के अंत की खुशी में सभी देवता प्रसन्न होकर भोलेनाथ की नगरी काशी पहुंचे और उन्होंने काशी में लाखों दीए जलाकर खुशियां मनाई। तभी से कार्तिक मास की पूर्णिमा पर देव दिवाली मनाई जाती है।
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