Puja

श्री गुरु चरित्रांतर्गत श्री गुरु गीता | Guru Gita Sanskrit Hindi paath

Shri Guru Gita: भगवान शंकर और देवी पार्वती के संवाद में प्रकट हुई यह गुरु गीता स्कंद पुराण का हिस्सा है। इस गुरुगीता का पाठ शत्रु का मुख बंद करने वाला है, गुणों की वृद्धि करने वाला है, दुष्कृत्यों का नाश करने वाला और सत्कर्म में सिद्धी देने वाला है। गुरुगीता अकाल मृत्यु को रोकती है, सब संकटों का नाश करती है, यक्ष, राक्षस, भूत, चोर आदि का विनाश करती है। पवित्र ज्ञानवान पुरुष इस गुरुगीता का जप-पाठ करते हैं। उनके दर्शन और स्पर्श से पुनर्जन्म नहीं होता। इस गुरुगीता के श्लोक भवरोग निवारण के लिए अमोघ औषधि हैं। साधकों के लिए यह परम अमृत है। स्वर्ग का अमृत पीने से पुण्य क्षीण होते हैं। यह गीता का अमृत पीने से पाप नष्ट होकर परम शांति मिलती है, स्वस्वरूप का भान होता है।

 

सम्पूर्ण गुरुगीता पाठ । संस्कृत पाठ । 

 

मुखस्तम्भकरं चैव गुणानां च विवर्धनम्।

दुष्कर्मनाशनं चैव तथा सत्कर्मसिद्धिदम्।।

अर्थात: इस श्री गुरुगीता का पाठ शत्रु का मुख बन्द करने वाला है, गुणों की वृद्धि करने वाला है, दुष्कृत्यों का नाश करने वाला और सत्कर्म में सिद्धि देने वाला है।

 

गुरुगीताक्षरैकेकं मंत्रराजमिदं प्रिये।

अन्ये च विविधा मंत्राः कलां नार्हन्तिषोडशीम्।।

अर्थात: हे प्रिये ! श्रीगुरुगीता का एक एक अक्षर मंत्रराज है। अन्य जो विविध मंत्र हैं वे इसका सोलहवाँ भाग भी नहीं।

 

अकालमृत्युहंत्री च सर्व संकटनाशिनी।

यक्षराक्षसभूतादि चोरव्याघ्रविघातिनी।।

अर्थात: श्रीगुरुगीता अकाल मृत्यु को रोकती है, सब संकटों का नाश करती है, यक्ष, राक्षस, भूत, चोर और शेर आदि का घात करती है।

 

शुचिभूता ज्ञानवंतो गुरुगीतां जपन्ति ये।

तेषां दर्शनसंस्पर्शात् पुनर्जन्म न विद्यते।।

अर्थात: जो पवित्र ज्ञानवान पुरुष इस श्रीगुरुगीता का जप-पाठ करते हैं उनके दर्शन और स्पर्श से पुनर्जन्म नहीं होता।

 

॥ श्री गुरु चरित्रांतर्गत श्री गुरु गीता ॥

॥ श्री गणेशायनमः॥ श्री सरस्वत्यै नमः॥ श्री गुरुभ्योनमः॥

 

विनियोगः –

ॐ अस्य श्रीगुरुगीतास्तोत्रमंत्रस्य भगवान्‌ सदाशिवऋषिः। नानाविधानि छंदांसि। 

श्री गुरुपरमात्मा देवता। हं बीजं। सः शक्तिः। सोऽहं कीलकं। श्रीगुरुप्रसादसिद्धयर्थे जपे विनियोगः॥

 

अथ करन्यासः –

ॐ हं सां सूर्यात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः।

ॐ हं सीं सोमात्मने तर्जनीभ्यां नमः।

ॐ हं सूं निरंजनात्मने मध्यमाभ्यां नमः।

ॐ हं सैं निराभासात्मने अनामिकाभ्यां नमः।

ॐ हं सौं अतनुसूक्ष्मात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः।

ॐ हं सः अव्यक्तात्मने करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

॥ इति करन्यासः ॥

 

अथ हृदयादिन्यासः –

ॐ हं सां सूर्यात्मने हृदयाय नमः।

ॐ हं सीं सोमात्मने शिरसे स्वाहा।

ॐ हं सूं निरंजनात्मने शिखायै वषट्।

ॐ हं सैं निराभासात्मने कवचाय हुं।

ॐ हं सौं अतनुसूक्ष्मात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।

ॐ हं सः अव्यक्तात्म्ने अस्राय फट्।

ॐ ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोमिति दिग्बन्धः।

॥ इति हृदयादिन्यासः ॥

 

अथ ध्यानं-

हंसाभ्यां परिवृत्तपत्रकमलैर्दिव्यैर्जगत्कारणैर्विश्वोत्कीर्णमनेकदेहनिलयैः स्वच्छन्दमात्मेच्छया। तद्योतं पदशांभवं तु चरणं दीपांकुरग्राहिणं, प्रत्यक्षाक्षरविग्रहं गुरुपदं ध्यायेद्विभुं शाश्वतम्‌॥ मम चतुर्विधपुरुषार्थसिद्धयर्थे जपे विनियोगः॥

 

।। अथ ध्यानम्।।

नमामि सदगुरुं शान्तं प्रत्यक्षं शिवरूपिणम्।

शिरसा योगपीठस्थं मुक्तिकामर्थासिद्धिदम्।। 1 ।।

 

प्रातः शिरसि शुक्लाब्जो द्विनेत्रं द्विभुजं गुरुम्।

वराभयकरं शान्तं स्मरेत्तन्नामपूर्वकम्।। 2 ।।

 

प्रसन्नवदनाक्षं च सर्वदेवस्वरूपिणम्।

तत्पादोदकजा धारा निपतन्ति स्वमूर्धनि।। 3 ।।

 

तया संक्षालयेद् देहे ह्यान्तर्बाह्यगतं मलम्।

तत्क्षणाद्विरजो भूत्वा जायते स्फटिकोपमः।। 4 ।।

 

तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदास्तन्मुखरक्षिताः।

पूजयेदर्चितं तं तु तदमिध्यानपूर्वकम्।। 5 ।।

।। इति ध्यानम् ।।

 

।। मानसोपचारैः श्रीगुरुं पूजयित्वा ।।

लं पृथिव्यात्मने गंधतन्मात्रा प्रकृत्यानन्दात्मने श्रीगुरुदेवाय नमः पृथिव्यापकं गंधं समर्पयामि।। हं आकाशात्मने शब्दतन्मात्राप्रकृत्यानन्दात्मने श्रीगुरुदेवाय नमः आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि।। यं वाप्वात्मने स्पर्शतन्मात्राप्रकृत्यानन्दात्मने श्रीगुरुदेवाय नमः वाप्वात्मकं धूपं आघ्रापयामि।। रं तेजात्मने रूपतन्मात्राप्रकृत्यानन्दात्मने श्रीगुरुदेवाय नमः तेजात्मकं दीपं दर्शयामि।। वं अपात्मने रसतन्मात्राप्रकृत्यानन्दात्मने श्रीगुरुदेवाय नमः अपात्मकं नैवेद्यकं निवेदयामि।। सं सर्वात्मने सर्वतन्मात्राप्रकृत्यानन्दात्मने श्रीगुरुदेवाय नमः सर्वात्मकान् सर्वोपचारान् समर्पयामि।।

।। इति मानसपूजा ।।

 

 

|| अथ प्रथमोऽध्यायः||

 

अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने |

समस्त जगदाधारमूर्तये ब्रह्मणे नमः ||

अर्थात जो ब्रह्म अचिन्त्य, अव्यक्त, तीनों गुणों से रहित (फिर भी देखनेवालों के अज्ञान की उपाधि से) त्रिगुणात्मक और समस्त जगत का अधिष्ठान रूप है ऐसे ब्रह्म को नमस्कार हो| (1)

 

ऋषयः ऊचुः

सूत सूत महाप्राज्ञ निगमागमपारग|

गुरुस्वरूपमस्माकं ब्रूहि सर्वमलापहम्||

अर्थात: ऋषियों ने कहा : हे महाज्ञानी, हे वेद-वेदांगों के निष्णात ! प्यारे सूत जी ! सर्व पापों का नाश करनेवाले गुरु का स्वरूप हमें सुनाओ | (2)

 

यस्य श्रवणमात्रेण देही दुःखाद्विमुच्यते|

येन मार्गेण मुनयः सर्वज्ञत्वं प्रपेदिरे||

यत्प्राप्य न पुनर्याति नरः संसारबन्धनम्|

तथाविधं परं तत्वं वक्तव्यमधुना त्वया||

अर्थात: जिसको सुनने मात्र से मनुष्य दुःख से विमुक्त हो जाता है | जिस उपाय से मुनियों ने सर्वज्ञता प्राप्त की है, जिसको प्राप्त करके मनुष्य फ़िर से संसार बन्धन में बँधता नहीं है ऐसे परम तत्व का कथन आप करें | (3, 4)

 

गुह्यादगुह्यतमं सारं गुरुगीता विशेषतः|

त्वत्प्रसादाच्च श्रोतव्या तत्सर्वं ब्रूहि सूत नः||

अर्थात: जो तत्व परम रहस्यमय एवं श्रेष्ठ सारभूत है और विशेष कर जो गुरुगीता है वह आपकी कृपा से हम सुनना चाहते हैं | प्यारे सूतजी ! वे सब हमें सुनाइये | (5)

 

इति संप्राथितः सूतो मुनिसंघैर्मुहुर्मुहुः|

कुतूहलेन महता प्रोवाच मधुरं वचः||

अर्थात: इस प्रकार बार-बार प्रर्थना किये जाने पर सूतजी बहुत प्रसन्न होकर मुनियों के समूह से मधुर वचन बोले | (6)

 

सूत उवाच

श्रृणुध्वं मुनयः सर्वे श्रद्धया परया मुदा|

वदामि भवरोगघ्नीं गीता मातृस्वरूपिणीम्||

अर्थात: सूतजी ने कहा : हे सर्व मुनियों ! संसाररूपी रोग का नाश करनेवाली, मातृस्वरूपिणी (माता के समान ध्यान रखने वाली) गुरुगीता कहता हूँ | उसको आप अत्यंत श्रद्धा और प्रसन्नता से सुनिये| (7)

 

पुरा कैलासशिखरे सिद्धगन्धर्वसेविते|

तत्र कल्पलतापुष्पमन्दिरेऽत्यन्तसुन्दरे||

व्याघ्राजिने समासिनं शुकादिमुनिवन्दितम्|

बोधयन्तं परं तत्वं मध्येमुनिगणंक्वचित्||

प्रणम्रवदना शश्वन्नमस्कुर्वन्तमादरात्|

दृष्ट्वा विस्मयमापन्ना पार्वती परिपृच्छति||

अर्थात: प्राचीन काल में सिद्धों और गन्धर्वों के आवास रूप कैलास पर्वत के शिखर पर कल्पवृक्ष के फूलों से बने हुए अत्यंत सुन्दर मंदिर में, मुनियों के बीच व्याघ्रचर्म पर बैठे हुए, शुक आदि मुनियों द्वारा वन्दन किये जानेवाले और परम तत्व का बोध देते हुए भगवान शंकर को बार-बार नमस्कार करते देखकर, अतिशय नम्र मुखवाली पार्वति ने आश्चर्यचकित होकर पूछा|

 

पार्वत्युवाच

ॐ नमो देव देवेश परात्पर जगदगुरो |

त्वां नमस्कुर्वते भक्त्या सुरासुरनराः सदा ||

अर्थात: पार्वती ने कहा: हे ॐकार के अर्थस्वरूप, देवों के देव, श्रेष्ठों के श्रेष्ठ, हे जगदगुरो! आपको प्रणाम हो | देव दानव और मानव सब आपको सदा भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं | (11)

 

विधिविष्णुमहेन्द्राद्यैर्वन्द्यः खलु सदा भवान् |

नमस्करोषि कस्मै त्वं नमस्काराश्रयः किलः ||

अर्थात: आप ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि के नमस्कार के योग्य हैं | ऐसे नमस्कार के आश्रयरूप होने पर भी आप किसको नमस्कार करते हैं | (12)

 

भगवन् सर्वधर्मज्ञ व्रतानां व्रतनायकम् |

ब्रूहि मे कृपया शम्भो गुरुमाहात्म्यमुत्तमम् ||

अर्थात: हे भगवान् ! हे सर्व धर्मों के ज्ञाता ! हे शम्भो ! जो व्रत सब व्रतों में श्रेष्ठ है ऐसा उत्तम गुरु-माहात्म्य कृपा करके मुझे कहें | (13)

 

इति संप्रार्थितः शश्वन्महादेवो महेश्वरः |

आनंदभरितः स्वान्ते पार्वतीमिदमब्रवीत् ||

अर्थात: इस प्रकार (पार्वती देवी द्वारा) बार-बार प्रार्थना किये जाने पर महादेव ने अंतर से खूब प्रसन्न होते हुए पार्वती से इस प्रकार कहा | (14)

 

महादेव उवाच

न वक्तव्यमिदं देवि रहस्यातिरहस्यकम् |

न कस्यापि पुरा प्रोक्तं त्वद्भक्त्यर्थं वदामि तत् ||

अर्थात: श्री महादेव जी ने कहा: हे देवी ! यह तत्व रहस्यों का भी रहस्य है इसलिए कहना उचित नहीं | पहले किसी से भी नहीं कहा | फिर भी तुम्हारी भक्ति देखकर वह रहस्य कहता हूँ |

 

मम् रूपासि देवि त्वमतस्तत्कथयामि ते |

लोकोपकारकः प्रश्नो न केनापि कृतः पुरा ||

अर्थात: हे देवी ! तुम मेरा ही स्वरूप हो इसलिए (यह रहस्य) तुमको कहता हूँ | तुम्हारा यह प्रश्न लोक का कल्याणकारक है | ऐसा प्रश्न पहले कभी किसीने नहीं किया |

 

यस्य देवे परा भक्ति, यथा देवे तथा गुरौ |

त्स्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ||

अर्थात: जिसको ईश्वर में उत्तम भक्ति होती है, जैसी ईश्वर में वैसी ही भक्ति जिसको गुरु में होती है ऐसे महात्माओं को ही यहाँ कही हुई बात समझ में आयेगी |

 

यो गुरु स शिवः प्रोक्तो, यः शिवः स गुरुस्मृतः |

विकल्पं यस्तु कुर्वीत स नरो गुरुतल्पगः ||

अर्थात: जो गुरु हैं वे ही शिव हैं, जो शिव हैं वे ही गुरु हैं | दोनों में जो अन्तर मानता है वह गुरुपत्नीगमन करनेवाले के समान पापी है |

 

वेद्शास्त्रपुराणानि चेतिहासादिकानि च |

मंत्रयंत्रविद्यादिनिमोहनोच्चाटनादिकम् ||

शैवशाक्तागमादिनि ह्यन्ये च बहवो मताः |

अपभ्रंशाः समस्तानां जीवानां भ्रांतचेतसाम् ||

जपस्तपोव्रतं तीर्थं यज्ञो दानं तथैव च |

गुरु तत्वं अविज्ञाय सर्वं व्यर्थं भवेत् प्रिये ||

अर्थात: हे प्रिये ! वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि मंत्र, यंत्र, मोहन, उच्चाट्न आदि विद्या शैव, शाक्त आगम और अन्य सर्व मत मतान्तर, ये सब बातें गुरुतत्व को जाने बिना भ्रान्त चित्तवाले जीवों को पथभ्रष्ट करनेवाली हैं और जप, तप व्रत तीर्थ, यज्ञ, दान, ये सब व्यर्थ हो जाते हैं | (19, 20, 21)

 

गुरुबुध्यात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने |

तल्लभार्थं प्रयत्नस्तु कर्त्तवयशच मनीषिभिः ||

अर्थात: हे सुमुखी ! आत्मा में गुरु बुद्धि के सिवा अन्य कुछ भी सत्य नहीं है सत्य नहीं है | इसलिये इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिये बुद्धिमानों को प्रयत्न करना चाहिये | (22)

 

गूढाविद्या जगन्माया देहशचाज्ञानसम्भवः |

विज्ञानं यत्प्रसादेन गुरुशब्देन कथयते ||

अर्थात: जगत गूढ़ अविद्यात्मक मायारूप है और शरीर अज्ञान से उत्पन्न हुआ है | इनका विश्लेषणात्मक ज्ञान जिनकी कृपा से होता है उस ज्ञान को गुरु कहते हैं |

 

देही ब्रह्म भवेद्यस्मात् त्वत्कृपार्थंवदामि तत् |

सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पादसेवनात् ||

अर्थात: जिस गुरुदेव के पादसेवन से मनुष्य सर्व पापों से विशुद्धात्मा होकर ब्रह्मरूप हो जाता है वह तुम पर कृपा करने के लिये कहता हूँ | (24)

 

शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसः |

गुरोः पादोदकं सम्यक् संसारार्णवतारकम् ||

अर्थात: श्री गुरुदेव का चरणामृत पापरूपी कीचड़ का सम्यक् शोषक है, ज्ञानतेज का सम्यक् उद्यीपक है और संसारसागर का सम्यक तारक है | (25)

 

अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम् |

ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं गुरुपादोदकं पिबेत् ||

अर्थात: अज्ञान की जड़ को उखाड़नेवाले, अनेक जन्मों के कर्मों को निवारनेवाले, ज्ञान और वैराग्य को सिद्ध करनेवाले श्रीगुरुदेव के चरणामृत का पान करना चाहिये | (26)

 

स्वदेशिकस्यैव च नामकीर्तनम्

भवेदनन्तस्यशिवस्य कीर्तनम् |

स्वदेशिकस्यैव च नामचिन्तनम्

भवेदनन्तस्यशिवस्य नामचिन्तनम् ||

अर्थात: अपने गुरुदेव के नाम का कीर्तन अनंत स्वरूप भगवान शिव का ही कीर्तन है | अपने गुरुदेव के नाम का चिंतन अनंत स्वरूप भगवान शिव का ही चिंतन है | (27)

 

काशीक्षेत्रं निवासश्च जाह्नवी चरणोदकम् |

गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात् तारकं ब्रह्मनिश्चयः ||

अर्थात: गुरुदेव का निवासस्थान काशी क्षेत्र है | श्री गुरुदेव का पादोदक गंगाजी है | गुरुदेव भगवान विश्वनाथ और निश्चय ही साक्षात् तारक ब्रह्म हैं | (28)

 

गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः |

तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्रदत्तमनस्ततम् ||

अर्थात: गुरुदेव की सेवा ही तीर्थराज गया है | गुरुदेव का शरीर अक्षय वटवृक्ष है | गुरुदेव के श्रीचरण भगवान विष्णु के श्रीचरण हैं | वहाँ लगाया हुआ मन तदाकार हो जाता है | (29)

 

गुरुवक्त्रे स्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः |

गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् पुरूषं स्वैरिणी यथा ||

अर्थात: ब्रह्म श्रीगुरुदेव के मुखारविन्द (वचनामृत) में स्थित है | वह ब्रह्म उनकी कृपा से प्राप्त हो जाता है | इसलिये जिस प्रकार स्वेच्छाचारी स्त्री अपने प्रेमी पुरुष का सदा चिंतन करती है उसी प्रकार सदा गुरुदेव का ध्यान करना चाहिये | (30)

 

स्वाश्रमं च स्वजातिं च स्वकीर्ति पुष्टिवर्धनम् |

एतत्सर्वं परित्यज्य गुरुमेव समाश्रयेत् ||

अर्थात: अपने आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रमादि) जाति, कीर्ति (पदप्रतिष्ठा), पालन-पोषण, ये सब छोड़ कर गुरुदेव का ही सम्यक् आश्रय लेना चाहिये | (31)

 

गुरुवक्त्रे स्थिता विद्या गुरुभक्त्या च लभ्यते |

त्रैलोक्ये स्फ़ुटवक्तारो देवर्षिपितृमानवाः ||

अर्थात: विद्या गुरुदेव के मुख में रहती है और वह गुरुदेव की भक्ति से ही प्राप्त होती है | यह बात तीनों लोकों में देव, ॠषि, पितृ और मानवों द्वारा स्पष्ट रूप से कही गई है | (32)

 

गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते |

अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ||

अर्थात: गु शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और रु शब्द का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान) | अज्ञान को नष्ट करनेवाल जो ब्रह्मरूप प्रकाश है वह गुरु है | इसमें कोई संशय नहीं है | (33)

 

गुकारश्चान्धकारस्तु रुकारस्तन्निरोधकृत् |

अन्धकारविनाशित्वात् गुरुरित्यभिधीयते ||

अर्थात: गु कार अंधकार है और उसको दूर करनेवाल रु कार है | अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने के कारण ही गुरु कहलाते हैं | (34)

 

गुकारश्च गुणातीतो रूपातीतो रुकारकः |

गुणरूपविहीनत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ||

अर्थात: गु कार से गुणातीत कहा जता है, रु कार से रूपातीत कहा जता है | गुण और रूप से पर होने के कारण ही गुरु कहलाते हैं | (35)

 

गुकारः प्रथमो वर्णो मायादि गुणभासकः |

रुकारोऽस्ति परं ब्रह्म मायाभ्रान्तिविमोचकम् ||

अर्थात: गुरु शब्द का प्रथम अक्षर गु माया आदि गुणों का प्रकाशक है और दूसरा अक्षर रु कार माया की भ्रान्ति से मुक्ति देनेवाला परब्रह्म है | (36)

 

सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदांबुजम् |

वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात्संपूजयेद् गुरुम् ||

अर्थात: गुरु सर्व श्रुतिरूप श्रेष्ठ रत्नों से सुशोभित चरणकमलवाले हैं और वेदान्त के अर्थ के प्रवक्ता हैं | इसलिये श्री गुरुदेव की पूजा करनी चाहिये | (37)

 

यस्यस्मरणमात्रेण ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम् |

सः एव सर्वसम्पत्तिः तस्मात्संपूजयेद् गुरुम् ||

अर्थात: जिनके स्मरण मात्र से ज्ञान अपने आप प्रकट होने लगता है और वे ही सर्व (शमदमदि) सम्पदारूप हैं | अतः श्री गुरुदेव की पूजा करनी चाहिये | (38)

 

संसारवृक्षमारूढ़ाः पतन्ति नरकार्णवे |

यस्तानुद्धरते सर्वान् तस्मै श्रीगुरवे नमः ||

अर्थात: संसाररूपी वृक्ष पर चढ़े हुए लोग नरकरूपी सागर में गिरते हैं | उन सबका उद्धार करनेवाले श्री गुरुदेव को नमस्कार हो | (39)

 

एक एव परो बन्धुर्विषमे समुपस्थिते |

गुरुः सकलधर्मात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ||

अर्थात: जब विकट परिस्थिति उपस्थित होती है तब वे ही एकमात्र परम बांधव हैं और सब धर्मों के आत्मस्वरूप हैं | ऐसे श्रीगुरुदेव को नमस्कार हो | (40)

 

भवारण्यप्रविष्टस्य दिड्मोहभ्रान्तचेतसः |

येन सन्दर्शितः पन्थाः तस्मै श्रीगुरवे नमः ||

अर्थात: संसार रूपी अरण्य में प्रवेश करने के बाद दिग्मूढ़ की स्थिति में (जब कोई मार्ग नहीं दिखाई देता है), चित्त भ्रमित हो जाता है , उस समय जिसने मार्ग दिखाया उन श्री गुरुदेव को नमस्कार हो | (41)

 

तापत्रयाग्नितप्तानां अशान्तप्राणीनां भुवि |

गुरुरेव परा गंगा तस्मै श्रीगुरुवे नमः ||

अर्थात: इस पृथ्वी पर त्रिविध ताप (आधि-व्याधि-उपाधि) रूपी अग्नी से जलने के कारण अशांत हुए प्राणियों के लिए गुरुदेव ही एकमात्र उत्तम गंगाजी हैं | ऐसे श्री गुरुदेवजी को नमस्कार हो | (42)

 

सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानफलं तु यत् |

रुपादपयोबिन्दोः सहस्रांशेन तत्फलम् ||

अर्थात: सात समुद्र पर्यन्त के सर्व तीर्थों में स्नान करने से जितना फल मिलता है वह फल श्रीगुरुदेव के चरणामृत के एक बिन्दु के फल का हजारवाँ हिस्सा है | (43)

 

शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन |

लब्ध्वा कुलगुरुं सम्यग्गुरुमेव समाश्रयेत् ||

अर्थात: यदि शिवजी नारज़ हो जायें तो गुरुदेव बचानेवाले हैं, किन्तु यदि गुरुदेव नाराज़ हो जायें तो बचानेवाला कोई नहीं | अतः गुरुदेव को संप्राप्त करके सदा उनकी शरण में रेहना चाहिए | (44)

 

गुकारं च गुणातीतं रुकारं रुपवर्जितम् |

गुणातीतमरूपं च यो दद्यात् स गुरुः स्मृतः ||

अर्थात: गुरु शब्द का गु अक्षर गुणातीत अर्थ का बोधक है और रु अक्षर रूपरहित स्थिति का बोधक है | ये दोनों (गुणातीत और रूपातीत) स्थितियाँ जो देते हैं उनको गुरु कहते हैं | (45)

 

अत्रिनेत्रः शिवः साक्षात् द्विबाहुश्च हरिः स्मृतः |

योऽचतुर्वदनो ब्रह्मा श्रीगुरुः कथितः प्रिये ||

अर्थात: हे प्रिये ! गुरु ही त्रिनेत्ररहित (दो नेत्र वाले) साक्षात् शिव हैं, दो हाथ वाले भगवान विष्णु हैं और एक मुखवाले ब्रह्माजी हैं | (46)

 

देवकिन्नरगन्धर्वाः पितृयक्षास्तु तुम्बुरुः |

मुनयोऽपि न जानन्ति गुरुशुश्रूषणे विधिम् ||

अर्थात: देव, किन्नर, गंधर्व, पितृ, यक्ष, तुम्बुरु (गंधर्व का एक प्रकार) और मुनि लोग भी गुरुसेवा की विधि नहीं जानते | (47)

 

तार्किकाश्छान्दसाश्चैव देवज्ञाः कर्मठः प्रिये |

लौकिकास्ते न जानन्ति गुरुतत्वं निराकुलम् ||

अर्थात: हे प्रिये ! तार्किक, वैदिक, ज्योतिषि, कर्मकांडी तथा लोकिकजन निर्मल गुरुतत्व को नहीं जानते | (48)

 

महाहंकारगर्वेण तपोविद्याबलेन च ।

भ्रमन्त्येतस्मिन् संसारे घटीयन्त्रं तथा पुनः ।। 49 ।।

अर्थात: तप और विद्या के बल के कारण से और महा अहंकार के कारण से जीव इस संसार में रहट की तरह बार-बार भटकता है ।

 

यज्ञिनोऽपि न मुक्ताः स्युः न मुक्ताः योगिनस्तथा |

तापसा अपि नो मुक्त गुरुतत्वात्पराड्मुखाः ||

अर्थात: यदि गुरुतत्व से प्राड्मुख हो जाये तो याज्ञिक मुक्ति नहीं पा सकते, योगी मुक्त नहीं हो सकते और तपस्वी भी मुक्त नहीं हो सकते | (50)

 

न मुक्तास्तु गन्धर्वः पितृयक्षास्तु चारणाः |

ॠष्यः सिद्धदेवाद्याः गुरुसेवापराड्मुखाः ||

अर्थात: गुरुसेवा से विमुख गंधर्व, पितृ, यक्ष, चारण, ॠषि, सिद्ध और देवता आदि भी मुक्त नहीं होंगे ।। (51) ।।

 

|| इति श्री स्कान्दोत्तरखण्डे उमामहेश्वरसंवादे श्री गुरुगीतायां प्रथमोऽध्यायः ||

 

|| अथ द्वितीयोऽध्यायः ||

 

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् |

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्

भावतीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि ||

अर्थात: जो ब्रह्मानंदस्वरूप हैं, परम सुख देनेवाले हैं जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं, (सुख, दुःख, शीत-उष्ण आदि) द्वन्द्वों से रहित हैं, आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं, तत्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ हैं, एक हैं, नित्य हैं, मलरहित हैं, अचल हैं, सर्व बुद्धियों के साक्षी हैं, भावना से परे हैं, सत्व, रज और तम तीनों गुणों से रहित हैं ऐसे श्री सदगुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ | (52)

 

गुरुपदिष्टमार्गेण मनः शिद्धिं तु कारयेत् |

अनित्यं खण्डयेत्सर्वं यत्किंचिदात्मगोचरम् ||

अर्थात: श्री गुरुदेव के द्वारा उपदिष्ट मार्ग से मन की शुद्धि करनी चाहिए | जो कुछ भी अनित्य वस्तु अपनी इन्द्रियों की विषय हो जायें उनका खण्डन (निराकरण) करना चाहिए | (53)

 

किमत्रं बहुनोक्तेन शास्त्रकोटिशतैरपि |

दुर्लभा चित्तविश्रान्तिः विना गुरुकृपां पराम् ||

यहाँ ज्यादा कहने से क्या लाभ ? श्री गुरुदेव की परम कृपा के बिना करोड़ों शास्त्रों से भी चित्त की विश्रांति दुर्लभ है | (54)

 

करुणाखड्गपातेन छित्त्वा पाशाष्टकं शिशोः |

सम्यगानन्दजनकः सदगुरु सोऽभिधीयते ||

एवं श्रुत्वा महादेवि गुरुनिन्दा करोति यः |

स याति नरकान् घोरान् यावच्चन्द्रदिवाकरौ ||

करुणारूपी तलवार के प्रहार से शिष्य के आठों पाशों (संशय, दया, भय, संकोच, निन्दा, प्रतिष्ठा, कुलाभिमान और संपत्ति ) को काटकर निर्मल आनंद देनेवाले को सदगुरु कहते हैं | ऐसा सुनने पर भी जो मनुष्य गुरुनिन्दा करता है, वह (मनुष्य) जब तक सूर्यचन्द्र का अस्तित्व रहता है तब तक घोर नरक में रहता है | (55, 56)

 

यावत्कल्पान्तको देहस्तावद्देवि गुरुं स्मरेत् |

गुरुलोपो न कर्त्तव्यः स्वच्छन्दो यदि वा भवेत् ||

हे देवी ! देह कल्प के अन्त तक रहे तब तक श्री गुरुदेव का स्मरण करना चाहिए और आत्मज्ञानी होने के बाद भी (स्वच्छन्द अर्थात् स्वरूप का छन्द मिलने पर भी ) शिष्य को गुरुदेव की शरण नहीं छोड़नी चाहिए | (57)

 

हुंकारेण न वक्तव्यं प्राज्ञशिष्यै कदाचन |

गुरुराग्रे न वक्तव्यमसत्यं तु कदाचन ||

श्री गुरुदेव के समक्ष प्रज्ञावान् शिष्य को कभी हुँकार शब्द से (मैने ऐसे किया… वैसा किया ) नहीं बोलना चाहिए और कभी असत्य नहीं बोलना चाहिए | (58)

 

गुरुं त्वंकृत्य हुंकृत्य गुरुसान्निध्यभाषणः |

अरण्ये निर्जले देशे संभवेद् ब्रह्मराक्षसः ||

गुरुदेव के समक्ष जो हुँकार शब्द से बोलता है अथवा गुरुदेव को तू कहकर जो बोलता है वह निर्जन मरुभूमि में ब्रह्मराक्षस होता है | (59)

 

अद्वैतं भावयेन्नित्यं सर्वावस्थासु सर्वदा |

कदाचिदपि नो कुर्यादद्वैतं गुरुसन्निधौ ||

सदा और सर्व अवस्थाओं में अद्वैत की भावना करनी चाहिए परन्तु गुरुदेव के साथ अद्वैत की भावना कदापि नहीं करनी चाहिए | (60)

 

दृश्यविस्मृतिपर्यन्तं कुर्याद् गुरुपदार्चनम् |

तादृशस्यैव कैवल्यं न च तद्व्यतिरेकिणः ||

जब तक दृश्य प्रपंच की विस्मृति न हो जाय तब तक गुरुदेव के पावन चरणारविन्द की पूजा-अर्चना करनी चाहिए | ऐसा करनेवाले को ही कैवल्यपद की प्रप्ति होती है, इसके विपरीत करनेवाले को नहीं होती | (61)

 

अपि संपूर्णतत्त्वज्ञो गुरुत्यागी भवेद्ददा |

भवेत्येव हि तस्यान्तकाले विक्षेपमुत्कटम् ||

संपूर्ण तत्त्वज्ञ भी यदि गुरु का त्याग कर दे तो मृत्यु के समय उसे महान् विक्षेप अवश्य हो जाता है | (62)

 

गुरौ सति स्वयं देवी परेषां तु कदाचन |

उपदेशं न वै कुर्यात् तदा चेद्राक्षसो भवेत् ||

हे देवी ! गुरु के रहने पर अपने आप कभी किसी को उपदेश नहीं देना चाहिए | इस प्रकार उपदेश देनेवाला ब्रह्मराक्षस होता है | (63)

 

न गुरुराश्रमे कुर्यात् दुष्पानं परिसर्पणम् |

दीक्षा व्याख्या प्रभुत्वादि गुरोराज्ञां न कारयेत् ||

गुरु के आश्रम में नशा नहीं करना चाहिए, टहलना नहीं चाहिए | दीक्षा देना, व्याख्यान करना, प्रभुत्व दिखाना और गुरु को आज्ञा करना, ये सब निषिद्ध हैं | (64)

 

नोपाश्रमं च पर्यंकं न च पादप्रसारणम् |

नांगभोगादिकं कुर्यान्न लीलामपरामपि ||

गुरु के आश्रम में अपना छप्पर और पलंग नहीं बनाना चाहिए, (गुरुदेव के सम्मुख) पैर नहीं पसारना, शरीर के भोग नहीं भोगने चाहिए और अन्य लीलाएँ नहीं करनी चाहिए | (65)

 

गुरुणां सदसद्वापि यदुक्तं तन्न लंघयेत् |

कुर्वन्नाज्ञां दिवारात्रौ दासवन्निवसेद् गुरौ ||

गुरुओं की बात सच्ची हो या झूठी, परन्तु उसका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिए | रात और दिन गुरुदेव की आज्ञा का पालन करते हुए उनके सान्निध्य में दास बन कर रहना चाहिए | (66)

 

अदत्तं न गुरोर्द्रव्यमुपभुंजीत कहिर्चित् |

दत्तं च रंकवद् ग्राह्यं प्राणोप्येतेन लभ्यते ||

जो द्रव्य गुरुदेव ने नहीं दिया हो उसका उपयोग कभी नहीं करना चाहिए | गुरुदेव के दिये हुए द्रव्य को भी गरीब की तरह ग्रहण करना चाहिए | उससे प्राण भी प्राप्त हो सकते हैं | (67)

 

पादुकासनशय्यादि गुरुणा यदभिष्टितम् |

नमस्कुर्वीत तत्सर्वं पादाभ्यां न स्पृशेत् क्वचित् ||

पादुका, आसन, बिस्तर आदि जो कुछ भी गुरुदेव के उपयोग में आते हों उन सर्व को नमस्कार करने चाहिए और उनको पैर से कभी नहीं छूना चाहिए | (68)

 

गच्छतः पृष्ठतो गच्छेत् गुरुच्छायां न लंघयेत् |

नोल्बणं धारयेद्वेषं नालंकारास्ततोल्बणान् ||

चलते हुए गुरुदेव के पीछे चलना चाहिए, उनकी परछाईं का भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए | गुरुदेव के समक्ष कीमती वेशभूषा, आभूषण आदि धारण नहीं करने चाहिए | (69)

 

गुरुनिन्दाकरं दृष्ट्वा धावयेदथ वासयेत् |

स्थानं वा तत्परित्याज्यं जिह्वाच्छेदाक्षमो यदि ||

गुरुदेव की निन्दा करनेवाले को देखकर यदि उसकी जिह्वा काट डालने में समर्थ न हो तो उसे अपने स्थान से भगा देना चाहिए | यदि वह ठहरे तो स्वयं उस स्थान का परित्याग करना चाहिए | (70)

 

मुनिभिः पन्नगैर्वापि सुरैवा शापितो यदि |

कालमृत्युभयाद्वापि गुरुः संत्राति पार्वति ||

हे पर्वती ! मुनियों पन्नगों और देवताओं के शाप से तथा यथा काल आये हुए मृत्यु के भय से भी शिष्य को गुरुदेव बचा सकते हैं | (71)

 

विजानन्ति महावाक्यं गुरोश्चरणसेवया |

ते वै संन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः ||

गुरुदेव के श्रीचरणों की सेवा करके महावाक्य के अर्थ को जो समझते हैं वे ही सच्चे संन्यासी हैं, अन्य तो मात्र वेशधारी हैं | (72)

 

नित्यं ब्रह्म निराकारं निर्गुणं बोधयेत् परम् |

भासयन् ब्रह्मभावं च दीपो दीपान्तरं यथा ||

गुरु वे हैं जो नित्य, निर्गुण, निराकार, परम ब्रह्म का बोध देते हुए, जैसे एक दीपक दूसरे दीपक को प्रज्ज्वलित करता है वैसे, शिष्य में ब्रह्मभाव को प्रकटाते हैं | (73)

 

गुरुप्रादतः स्वात्मन्यात्मारामनिरिक्षणात् |

समता मुक्तिमर्गेण स्वात्मज्ञानं प्रवर्तते ||

श्री गुरुदेव की कृपा से अपने भीतर ही आत्मानंद प्राप्त करके समता और मुक्ति के मार्ग द्वार शिष्य आत्मज्ञान को उपलब्ध होता है | (74)

 

स्फ़टिके स्फ़ाटिकं रूपं दर्पणे दर्पणो यथा |

तथात्मनि चिदाकारमानन्दं सोऽहमित्युत ||

जैसे स्फ़टिक मणि में स्फ़टिक मणि तथा दर्पण में दर्पण दिख सकता है उसी प्रकार आत्मा में जो चित् और आनंदमय दिखाई देता है वह मैं हूँ | (75)

 

अंगुष्ठमात्रं पुरुषं ध्यायेच्च चिन्मयं हृदि |

तत्र स्फ़ुरति यो भावः श्रुणु तत्कथयामि ते ||

हृदय में अंगुष्ठ मात्र परिणाम वाले चैतन्य पुरुष का ध्यान करना चाहिए | वहाँ जो भाव स्फ़ुरित होता है वह मैं तुम्हें कहता हूँ, सुनो | (76)

 

 

अजोऽहममरोऽहं च ह्यनादिनिधनोह्यहम् |

अविकारश्चिदानन्दो ह्यणियान् महतो महान् ||

मैं अजन्मा हूँ, मैं अमर हूँ, मेरा आदि नहीं है, मेरी मृत्यु नहीं है | मैं निर्विकार हूँ, मैं चिदानन्द हूँ, मैं अणु से भी छोटा हूँ और महान् से भी महान् हूँ | (77)

 

 

अपूर्वमपरं नित्यं स्वयं ज्योतिर्निरामयम् |

विरजं परमाकाशं ध्रुवमानन्दमव्ययम् ||

अगोचरं तथाऽगम्यं नामरूपविवर्जितम् |

निःशब्दं तु विजानीयात्स्वाभावाद् ब्रह्म पर्वति ||

हे पर्वती ! ब्रह्म को स्वभाव से ही अपूर्व (जिससे पूर्व कोई नहीं ऐसा), अद्वितीय, नित्य, ज्योतिस्वरूप, निरोग, निर्मल, परम आकाशस्वरूप, अचल, आनन्दस्वरूप, अविनाशी, अगम्य, अगोचर, नाम-रूप से रहित तथा निःशब्द जानना चाहिए | (78, 79)