santaan saptami 2023: इस वर्ष 21 सितंबर 2023, दिन गुरुवार को संतान सप्तमी पर्व/व्रत मनाया जा रहा है।
ज्योतिर्विद् पं हेमन्त रिछारिया जी के अनुसार संतान सप्तमी व्रत आज ही मनाया जा रहा है। भविष्योत्तर पुराण अंतर्गत संतान सप्तमी का व्रत भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को किया जाता है। इसमें षष्ठी विद्धा तिथि अर्थात् जो षष्ठी और सप्तमी संयुक्त हो उसे ग्रहण किया जाता है। सप्तमी और अष्टमी संयुक्त तिथि का निषेध किया जाता है। इसमें उदयातिथि का सिद्धांत लागू नहीं होता। अत: संतान सप्तमी व्रत 21 सितंबर 2023, गुरुवार के दिन मनाया जाना उचित है।
मान्यता के अनुसार इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती की विधि-विधान से पूजा की जाती है। भाद्रपद शुक्ल सप्तमी के दिन माता-पिता दोनों या फिर दोनों में से कोई एक व्यक्ति संतान सप्तमी का व्रत रखकर पूजन कर सकता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार भाद्रपद महीने की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को संतान संप्तमी का व्रत पुत्र प्राप्ति, पुत्र रक्षा तथा पुत्र अभ्युदय के लिए किया जाता है। इस व्रत को ‘मुक्ताभरण’ भी कहते हैं। इस व्रत का विधान दोपहर तक रहता है।
इस दिन शिव-पार्वती के साथ जांबवती, श्यामसुंदर तथा उनके बच्चे साम्ब की पूजा भी की जाती है। माताएं पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति तथा उसके अभ्युदय का वरदान मांगती हैं। भाद्रपद माह की सप्तमी तिथि को किए जाने वाले इस व्रत का अत्यंत महत्व है। संतान सप्तमी के व्रत से जुड़ी एक कथा भी प्रचलित है जिसे पूजन के दौरान पढ़ा एवं सुना जाता है। यह पर्व प्रतिवर्ष भाद्रपद महीने की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को किया जाता है। यह व्रत संतान प्राप्ति, कुशलता और उन्नति के लिए किया जाता है।
आइए यहां जानते हैं पूजन विधि एवं कथा के बारे में-
पूजा विधि- santaan saptami puja vidhi
1. संतान सप्तमी व्रत के दिन सुबह जल्दी उठकर, स्नानादि करके स्वच्छ कपड़े पहनें।
2. फिर भगवान शिव और मां गौरी के समक्ष प्रणाम कर व्रत का संकल्प लें।
3. अब अपने व्रत की शुरुआत करें और निराहार रहते हुए शुद्धता के साथ पूजन का प्रसाद तैयार कर लें।
4. इसके लिए खीर-पूरी व गुड़ के 7 पुए या फिर 7 मीठी पूरी तैयार कर लें।
5. यह पूजा दोपहर के समय तक कर लेनी चाहिए।
6. पूजा के लिए धरती पर चौक बनाकर उस पर चौकी रखें और उस पर शिव-पार्वती जी की मूर्ति स्थापित करें।
7. फिर कलश स्थापित करें, उसमें आम के पत्तों के साथ नारियल रखें।
8. दीया जलाएं और आरती की थाली तैयार कर लें, जिसमें हल्दी, कुमकुम, चावल, कपूर, फूल, कलावा आदि अन्य सामग्री रखें।
9. अब 7 मीठी पूड़ी को केले के पत्ते में बांधकर उसे पूजा में रखें और संतान की रक्षा व उन्नति के लिए प्रार्थना करते हुए पूजन करते हुए भगवान शिव को कलावा अर्पित करें।
10. पूजा करते समय सूती का डोरा या चांदी की संतान सप्तमी की चूड़ी हाथ में पहनने का बहुत महत्व है।
11. यह व्रत माता-पिता दोनों भी संतान की कामना के लिए कर सकते हैं।
12. पूजन के बाद धूप, दीप नेवैद्य अर्पित कर संतान सप्तमी की कथा पढ़ें या सुनें और बाद में कथा की पुस्तक का पूजन करें।
13. व्रत खोलने के लिए पूजन में चढ़ाई गई मीठी 7 पूड़ी या पुए खाएं और अपना व्रत खोलें।
कथा- santaan saptami katha एक बार श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि किसी समय मथुरा में लोमश ऋषि आए थे। मेरे माता-पिता देवकी तथा वसुदेव ने भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की तो ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए आदेश दिया- हे देवकी! कंस ने तुम्हारे कई पुत्रों को पैदा होते ही मार कर तुम्हें पुत्र शोक दिया है। इस दुःख से मुक्त होने के लिए तुम ‘संतान सप्तमी’ का व्रत करो। राजा नहुष की रानी चंद्रमुखी ने भी यह व्रत किया था। तब उसके भी पुत्र नहीं मरे। यह व्रत तुम्हें भी पुत्र शोक से मुक्त करेगा।
देवकी ने पूछा- हे देव! मुझे व्रत का पूरा विधि-विधान बताने की कृपा करें ताकि मैं विधिपूर्वक व्रत संपन्न करूं। लोमश ऋषि ने उन्हें व्रत का पूजन-विधान बताकर व्रतकथा भी बताई।
संतान सप्तमी की पौराणिक कथा के अनुसार नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उसके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं। वहां अन्य स्त्रियां भी स्नान कर रही थीं। उन स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया। तब रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती ने उन स्त्रियों से पूजन का नाम तथा विधि के बारे में पूछा।
उन स्त्रियों में से एक ने बताया- हमने पार्वती सहित शिव की पूजा की है। भगवान शिव का डोरा बांधकर हमने संकल्प किया है कि जब तक जीवित रहेंगी, तब तक यह व्रत करती रहेंगी। यह ‘मुक्ताभरण व्रत’ सुख तथा संतान देने वाला है। उस व्रत की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवन-पर्यंत इस व्रत को करने का संकल्प करके शिव जी के नाम का डोरा बांध लिया। किंतु घर पहुंचने पर वे संकल्प को भूल गईं। फलतः मृत्यु के पश्चात रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं।
कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में आईं। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था। भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ। इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया। व्रत भूलने के कारण ही रानी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित रही। प्रौढ़ावस्था में उसने एक गूंगा तथा बहरा पुत्र जन्मा, मगर वह भी 9 वर्ष का होकर मर गया। भूषणा ने व्रत को याद रखा था। इसलिए उसके गर्भ से सुंदर तथा स्वस्थ 8 पुत्रों ने जन्म लिया।
रानी ईश्वरी के पुत्र शोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई। उसे देखते ही रानी के मन में डाह पैदा हुई। उसने भूषणा को विदा करके उसके पुत्रों को भोजन के लिए बुलाया और भोजन में विष मिला दिया। परंतु भूषणा के व्रत के प्रभाव से उनका बाल भी बांका न हुआ। इससे रानी को और भी अधिक क्रोध आया। उसने अपने नौकरों को आज्ञा दी कि भूषणा के पुत्रों को पूजा के बहाने यमुना के किनारे ले जाकर गहरे जल में धकेल दिया जाए। किंतु भगवान शिव और माता पार्वती की कृपा से इस बार भी भूषणा के बालक व्रत के प्रभाव से बच गए। परिणामतः रानी ने जल्लादों को बुलाकर आज्ञा दी कि ब्राह्मण बालकों को वध-स्थल पर ले जाकर मार डालो किंतु जल्लादों द्वारा बेहद प्रयास करने पर भी बालक न मर सके।
यह समाचार सुनकर रानी को आश्चर्य हुआ। उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताई और फिर क्षमायाचना करके उससे पूछा- किस कारण तुम्हारे बच्चे नहीं मर पाए?
भूषणा बोली- क्या आपको पूर्वजन्म की बात स्मरण नहीं है? रानी ने आश्चर्य से कहा- नहीं, मुझे तो कुछ याद नहीं है?
तब उसने कहा- सुनो, पूर्वजन्म में तुम राजा नहुष की रानी थी और मैं तुम्हारी सखी। हम दोनों ने एक बार भगवान शिव का डोरा बांधकर संकल्प किया था कि जीवन-पर्यंत संतान सप्तमी का व्रत किया करेंगी। किंतु दुर्भाग्यवश हम भूल गईं और व्रत की अवहेलना होने के कारण विभिन्न योनियों में जन्म लेती हुई अब फिर मनुष्य जन्म को प्राप्त हुई हैं। अब मुझे उस व्रत की याद हो आई थी, इसलिए मैंने व्रत किया। उसी के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी न मरवा सकीं।
यह सब सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा। तब व्रत के प्रभाव से रानी पुनः गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया। उसी समय से यह व्रत प्रचलित है। आज भी पुत्र-प्राप्ति और संतान की रक्षा के लिए यह व्रत बहुत महत्व रखता है। और इसी कारण भाद्रपद शुक्ल सप्तमी के दिन यह व्रत रखा जाता है।
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