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Sharad Purnima 2024: कोजागिरी शरद पूर्णिमा की पौराणिक कथा

kojagara puja vrat katha: शरद पूर्णिमा को कोजागिरी पूर्णिमा व्रत और रास पूर्णिमा भी कहा जाता है तथा कुछ क्षेत्रों में इस व्रत को कौमुदी व्रत भी कहा जाता है। शरद पूर्णिमा पर चंद्रमा और भगवान विष्णु का पूजन करके व्रत की कथा पढ़ी जाती है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी दिन चन्द्र अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण होते हैं। इस बार 16 अक्टूबर 2024 बुधवार को यह पूर्णिमा रहेगी।ALSO READ: शरद पूर्णिमा का देवी लक्ष्मी से क्या है संबंध, जानिए शरद पूर्णिमा का धार्मिक महत्व
 

 

शरद पूर्णिमा व्रत की पहली कथा:- 

एक साहुकार को दो पुत्रियां थीं। दोनो पुत्रियां पूर्णिमा का व्रत रखती थीं। लेकिन बड़ी पुत्री पूरा व्रत करती थी और छोटी पुत्री अधूरा व्रत करती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि छोटी पुत्री की संतान पैदा होते ही मर जाती थी। उसने पंडितों से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया की तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती थी, जिसके कारण तुम्हारी संतान पैदा होते ही मर जाती है।

 

पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक करने से तुम्हारी संतान जीवित रह सकती है। उसने पंडितों की सलाह पर पूर्णिमा का पूरा व्रत विधिपूर्वक किया। बाद में उसे एक लड़का पैदा हुआ। जो कुछ दिनों बाद ही फिर से मर गया। उसने लड़के को एक पाटे (पीढ़ा) पर लेटा कर ऊपर से कपड़ा ढंक दिया। फिर बड़ी बहन को बुलाकर लाई और बैठने के लिए वही पाटा दे दिया। बड़ी बहन जब उस पर बैठने लगी जो उसका लहंगा बच्चे का छू गया। बच्चा लहंगा छूते ही रोने लगा। तब बड़ी बहन ने कहा कि तुम मुझे कलंक लगाना चाहती थी। मेरे बैठने से यह मर जाता। तब छोटी बहन बोली कि यह तो पहले से मरा हुआ था। तेरे ही भाग्य से यह जीवित हो गया है। तेरे पुण्य से ही यह जीवित हुआ है। उसके बाद नगर में उसने पूर्णिमा का पूरा व्रत करने का ढिंढोरा पिटवा दिया।

कोजागर शरद पूर्णिमा व्रत की कथा:- Kojagiri Sharad Purnima ki vrat katha kahani

शरद पूर्णिमा पर कोजागिरी व्रत की कथा के अनुसार मगध देश में वलित नामक एक गरीब ब्राह्मण रहता था। यूं तो वह अनेक विद्याओं का ज्ञाता था तथा नित्य ब्रह्म मुहूर्त में स्नान, त्रिसंध्या आदि करता था किन्तु आर्थिक रूप से वह अत्यन्त निर्धन था। यदि कोई उसके घर आ कर कुछ दान दे जाए तो स्वीकार कर लेता था अन्यथा वह किसी से कुछ भी नहीं मांगता था। उसकी पत्नी कलह प्रिय थी। इसी कारण ज्ञान का धनी होने के बावजूद वह निर्धन था। वह पत्नी प्रतिदिन इस बात को लेकर कलह करती थीं कि उसका विवाह यदि धन संपन्न परिवार में होता तो वह स्वर्ण आभूषणों से सजी-धजी घूमती है। उसकी पत्नी अन्य रिश्तेदारों के समक्ष भी उस गरीब ब्राह्मण के कुल एवं विद्या का तिरिस्कृत करती रहती थी। खास बात यह कि उसने यह प्रण ले लिया था कि जब तक वो धनवान नहीं होंगे, तब तक वह पति के हर आदेश के विपरीत ही कार्य करेगी।

 

एक दिन तो उसने अपने पति से राजा के यहां से धन चोरी कर लाने को कहा तथा ऐसा न करने पर आत्महत्या करने की चेतवानी दे डाली। फिर एक बार श्राद्धपक्ष में श्राद्ध हेतु आवश्यक सामग्री उपलब्ध नहीं थी परंतु ब्राह्मण इस बात को लेकर चिंतित था कि उसकी पत्नी उसे घर में श्राद्ध आदि कर्म नहीं करने देगी। वह यह सब मन ही मन विचार कर ही रहा था कि तभी उसका एक मित्र वहां आ गया। वलित ने चिंता समझकर मित्र बोला कि, यह तो कोई समस्या ही नहीं है। यदि तुम्हारी पत्नी जो तुम कहते हो उसका उल्टा ही करती है तो तुम उससे जो भी कार्य तुम्हें करवाना है उसके विपरीत कार्य करने को कहोगे, तो तुम्हारी परेशानी दूर हो जाएगी। इतना सुनते ही ब्राह्मण वलित हर्षित हो उठा।

 

फिर ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से कहा कि, हे चंडी! परसों मेरे पिता का श्राद्ध है किन्तु उन्होंने मेरे लिए किसी प्रकार की धन-सम्पत्ति आदि नहीं छोड़ी जिसके कारण आज मुझे यह दिन देखना पड़ रहे हैं। अतः तुम उनके श्राद्ध की कोई व्यवस्था मत करना और भोजन के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को न्योता मत देना। ब्राह्मण के वचन सुनकर उसकी पत्नी ने उसके कथन से विपरीत करने की तैयारी प्रारंभ कर दी। अपने पति के कथन का उल्टा करने की धुन में पत्नी ने विधि-विधान से श्राद्धकर्म सम्पन्न कराया। 

 

श्राद्ध के अन्त में पिण्डदान करने के पश्चात ब्राह्मण ने पत्नी से कहा कि, तू पिण्डों को जल में प्रवाहित करना भूल गईं है। इतना सुनते ही उसकी पत्नी ने पिण्डों को शौच की कूप में डाल दिया। इस घटना से वलित अत्यन्त क्रोध में आकर वलित ने अपने घर से माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने का संकल्प निकल पड़ा। उसने प्रण लिया कि जब तक माता लक्ष्मी उस पर कृपा नहीं करेंगी, तब तक वह निर्जन जंगल में निवास कर मात्र कन्द-मूल आदि का सेवन और घर नहीं लौटेगा। लक्ष्मी जी को प्रसन्न करेने के लिए उसने 30 दिनों तक धर्मा नदी के तट पर बैठकर तप किया और उसी बीच आश्विन माह की पूर्णिमा आ गई।

 

उस जंगल में उस वन में कालीय नाग के वंश की कन्याएं भी लक्ष्मी जी का व्रत कर रहीं थीं। उन नाग कन्याओं ने पंचामृत, रत्न एवं दर्पण आदि अर्पित कर देवी लक्ष्मी का श्रद्धापूर्वक पूजन किया। प्रथम पहर पूजन में व्यतीत हो गया तदोपरान्त चौसर खेलने की तैयारी हुई, किन्तु चौसर खेलने के लिए 4 लोगों की आवश्यकता थी और उन्हें चौथा भागीदार नहीं मिल रहा था। वह वन में चौथे व्यक्ति को खोज ही रहीं थीं कि, उनकी नजर नदी तट पर बैठे वलित ब्राह्मण पर पड़ी। नाग कन्याओं ने उससे पूछा कि आप कौन हैं? कृपया हमारे साथ लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने हेतु चौसर खेलने चलें।

 

ब्राह्मण ने उत्तर दिया, आप कैसी अनुचित बात कर रही हैं, चौसर यानी जुआ खेलने से लक्ष्मी का क्षय व धर्म का नाश होता है। कन्या ने कहा कि, आप बोलते तो पंडितों की भाषा हैं किन्तु आपके विचार मूर्खों जैसे हैं। इतना कहकर वह ब्राह्मण को अपने साथ मंदिर में ले गयीं तथा उसको प्रसाद और नारियल पानी प्रदान किया। तत्पश्चात् ‘माता लक्ष्मी प्रसन्न हों’ ऐसा बोलते हुए ब्राह्मण के साथ जुआ खेलना आरम्भ कर दिया।

 

सर्वप्रथम नाग कन्यायों ने दांव पर अमूल्य रत्न लगाए किन्तु ब्राह्मण के पास कुछ नहीं था इस कारण सर्वप्रथम उसने अपनी लंगोट दांव पर लगा दी जिसे वह हार गया। तत्पश्चात् उसने अपने जनेऊ को दांव पर लगा दिया किन्तु वह भी वह हर गया। अब कोई अन्य वस्तु न होने पर ब्राह्मण ने अपनी देह को ही दांव पर लगा दिया। अब ब्राह्मण के पास कुछ भी नहीं बचा था।

 

इसी बीच मध्यरात्रि हो गई और देवी लक्ष्मी भगवान श्री विष्णु के साथ संसार में भ्रमण करते हुए वहां से गुजरीं। भ्रमण करते- करते उन्होंने देखा कि एक ब्राह्मण कौपीन व यज्ञोपवीत विहीन होकर घोर चिन्ता और निराशा से घिरा हुआ बैठा है। यह देखकर श्री हरि विष्णु ने लक्ष्मी जी से कहा कि, आपका व्रत करने वाले ब्राह्मण की ऐसी दुर्दशा क्यों है? कृपया अपने इस भक्त के कष्ट का निवारण करें। इतना सुनते ही माता लक्ष्मी ने ब्राह्मण पर अपनी कृपा दृष्टि डाली तथा उसकी समस्त दरिद्रता को नष्ट कर दिया। 

 

लक्ष्मी जी की कृपा होते ही ब्राह्मण का रूप कामदेव के समान हो गया। उसका ऐसा रूप देखकर नाग कन्याओं ने उससे कहा कि, हे विप्रवर, हमने तुम्हें जीत लिया है इस कारण से अब तुम हमारा पति बनकर रहना होगा। ब्राह्मण को यह प्रस्ताव स्वीकार करना ही था क्योंकि वह अपनी देह भी हार गया था। ब्राह्मण ने सभी कन्याओं से गन्धर्व विवाह किया तथा नाना प्रकार के रत्नों के साथ वापस अपने घर के लिए निकल पड़ा।

 

वापस अपने घर पहुंचने पर ब्राह्मण ने सकारात्मक सोच रखी जिसके चलते उसका ऐसा मानना था कि उसकी पत्नी के तिरस्कार के कारण ही उसका भाग्य परिवर्तित हुआ है इसलिए ब्राह्मण ने अपनी पत्नी का सम्मान किया जिससे वह अत्यधिक प्रसन्न हो गयी तथा अपने पति की आज्ञा का पालन करने लगी। इस व्रत के प्रभाव से वलित ब्राह्मण की दशा और दिशा बदल गई तभी से यह व्रत किया जाने लगा।ALSO READ: जानिए क्या है शरद पूर्णिमा और श्रीकृष्ण का रहस्यमयी संबंध

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