भारत की यह सनातन परम्परा रही है कि, जब कभी भी हम कोई मांगलिक या धार्मिक कार्य प्रारम्भ करते है, तो उस समय मंगल की कामना के निमित्त शांति पाठ ( मंगल पाठ ) स्वस्त्ययन और गणपति स्तुति का विधान रहा हैं।
स्वस्ति वाचन मंत्र
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
स्वस्ति वाचन मंत्र हिन्दी में भावार्थ:
हे महान् कीर्ति वाले, ऐश्वर्यशाली देवराज इन्द्र हमारा कल्याण करें, जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, सबके पोषणकर्ता वे पूषा (सूर्य अथवा वैदिक देवता) हमारा कल्याण करें। जिनकी चक्रधारा के समान गति को कोई रोक नहीं सकता, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करें। वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करें।
स्वस्तिक मंत्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो। इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते हैं. यह माना जाता है कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। स्वस्ति मन्त्र का पाठ करने की क्रिया ‘स्वस्तिवाचन’ कहलाती है।
भद्र सूक्त-मांगलिक कार्य मे सर्व प्रथम शांति पाठ स्वस्त्ययन
ॐ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः । देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे ॥ देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानारातिरभि नो निवर्तताम् । देवानांऽ सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे । तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्त्रिधम् । अर्यमणं वरुणऽ सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ॥
तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः । तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम् ॥ तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम् । पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये ॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः । अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह ॥ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा – सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः ॥ शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम् ।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥ अदितिर्द्यौ रदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः । विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् ।। (शु य० २५ । १४-२३)
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।।(शु० य० ३६ । १७)
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु । शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ॥ सुशान्तिर्भवतु ।। (शु य० ३६ । २२)
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव॥
ॐ गणानां त्वा गणपति ग्वँग् हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वँग् हवामहे निधीनां त्वा निधीपति ग्वँग् हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥
ॐ अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन। ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्॥
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः । लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः । उमा महेश्वराभ्यां नमः । वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः । शचीपुरन्दराभ्यां नमः । मातृ-पितृ-चरणकमलेभ्यो नमः । इष्टदेवताभ्यो नमः । कुलदेवताभ्यो नमः । ग्रामदेवताभ्यो नमः । वास्तुदेवताभ्यो नमः । स्थानदेवताभ्यो नमः । सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः । सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः ।
ॐ सिद्धि बुद्धिसहिताय श्रीमन्महागणाधिपतये नमः
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः । धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन: । द्वादशैतानि नामानि य: पठेच्छृणुयादपि ॥
विद्यारम्भे पूजने चैव प्रवेशे निर्गमे तथा । सङ्ग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायजायते
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् । प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्व विघ्नोपशान्तये ॥
अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं पूजितो यः सुरासुरैः । सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये ! शिवे ! सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके ! गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ।।
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् ।येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलाय तनो हरिः
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव । विद्याबलं देवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽङ्घ्रियुगं स्मरामि ॥
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजय: । येषामिन्दी वर श्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्धुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
स्मृतेः सकलकल्याणं भाजनं यत्र जायते । पुरुषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम् ॥
सर्वेष्वारम्भकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः । देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दनाः ॥
विश्वेशं माधवं दुण्ढिं दण्डपाणिं च भैरवम् । वन्दे काशीं गुहां गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम् ॥
वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ । निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥
विनायकं गुरू भानु ब्रह्मं विष्णु महेश्वरान। सरस्वती प्रणम्यादौ सर्ब कामार्थ सिद्धय॥
शांति पाठ स्वस्ति वाचन हिंदी अनुवाद :-
हमारे पास चारों ओर से ऐंसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से बाधित न किया जा सके एवं अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों। प्रगति को न रोकने वाले और सदैव रक्षा में तत्पर देवता प्रतिदिन हमारी वृद्धि के लिए तत्पर रहें।
यजमान की इच्छा रखने वाले देवताओं की कल्याण कारिणी श्रेष्ठ बुद्धि सदा हमारे सम्मुख रहे, देवी देवताओं का दान हमें प्राप्त हो, हम देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करें, देवता हमारी आयु को जीने के निमित्त बढ़ायें।
हम वेदरुप सनातन वाणी के द्वारा अच्युतरुप भग, मित्र, अदिति, प्रजापति, अर्यमण, वरुण, चन्द्रमा और अश्विनीकुमारों का आवाहन करते हैं। ऐश्वर्यमयी माता सरस्वती महावाणी हमें सब प्रकार का सुख प्रदान करें।
वायुदेवता हमें सुखकारी औषधियाँ प्राप्त करायें। माता पृथ्वी और पिता स्वर्ग भी हमें सुखकारी औषधियाँ प्रदान करें। सोम का अभिषव करने वाले सुखदाता ग्रावा उस औषधरुप अदृष्ट को प्रकट करें। हे अश्विनी-कुमारो! आप दोनों सबके आधार हैं, हमारी प्रार्थना सुनिये।
हम स्थावर-जंगम के स्वामी, बुद्धि को सन्तोष देनेवाले रुद्रदेवता का रक्षा के निमित्त आवाहन करते हैं। वैदिक ज्ञान एवं धन की रक्षा करने वाले, पुत्र आदि के पालक, अविनाशी पुष्टि-कर्ता देवता हमारी वृद्धि और कल्याण के निमित्त हों।
महान कीर्ति वाले ऐश्वर्यशाली इन्द्र हमारा कल्याण करें, जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, सबके पोषणकर्ता वे पूषा (सूर्य) हमारा कल्याण करें। जिनकी चक्रधारा के समान गति को कोई रोक नहीं सकता, वे गरुड़देव हमारा कल्याण करें। वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारा कल्याण करें।
चितकबरे वर्ण के घोड़ों वाले, अदिति माता से उत्पन्न, सबका कल्याण करने वाले, यज्ञआलाओं में जाने वाले, अग्निरुपी जिह्वा वाले, सर्वज्ञ, सूर्यरुप नेत्र वाले मरुद्गण और विश्वेदेव देवता हविरुप अन्न को ग्रहण करने के लिये हमारे इस यज्ञ में आयें।
हे यजमान के रक्षक देवताओं! हम दृढ अंगों वाले शरीर से पुत्र आदि के साथ मिलकर आपकी स्तुति करते हुए कानों से कल्याण की बातें सुनें, नेत्रों से कल्याणमयी वस्तुओं को देखें, देवताओं की उपासना-योग्य आयु को प्राप्त करें।
हे देवताओं! आप सौ वर्ष की आयु-पर्यन्त हमारे समीप रहें, जिस आयु में हमारे शरीर को जरावस्था प्राप्त हो, जिस आयु में हमारे पुत्र पिता अर्थात् पुत्रवान् बन जाएँ, हमारी उस गमनशील आयु को आपलोग बीच में खण्डित न होने दें।
अखण्डित पराशक्ति स्वर्ग है, वही अन्तरिक्ष-रुप है, वही पराशक्ति माता-पिता और पुत्र भी है। समस्त देवता पराशक्ति के ही स्वरुप हैं, अन्त्यज सहित चारों वर्णों के सभी मनुष्य पराशक्तिमय हैं, जो उत्पन्न हो चुका है और जो उत्पन्न होगा, सब पराशक्ति के ही स्वरुप हैं।
द्युलोक शान्तिदायक हों, अन्तरिक्ष लोक शान्तिदायक हों, पृथ्वीलोक शान्तिदायक हों। जल, औषधियाँ और वनस्पतियाँ शान्तिदायक हों। सभी देवता, सृष्टि की सभी शक्तियाँ शान्तिदायक हों। ब्रह्म अर्थात महान परमेश्वर हमें शान्ति प्रदान करने वाले हों। उनका दिया हुआ ज्ञान, वेद शान्ति देने वाले हों।
सम्पूर्ण चराचर जगत शान्ति पूर्ण हों अर्थात सब जगह शान्ति ही शान्ति हो। ऐसी शान्ति मुझे प्राप्त हो और वह सदा बढ़ती ही रहे। अभिप्राय यह है कि सृष्टि का कण-कण हमें शान्ति प्रदान करने वाला हो। समस्त पर्यावरण ही सुखद व शान्तिप्रद हो।