आजकल लोग इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हनुमानजी के जन्म दिन को जयंती कहना छोड़कर जन्मोत्सव कहें। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि जयंती तो उसकी मनाते हैं जिसका देहांत हो गया हो। हनुमानजी तो अजर अमर है इसलिए उनकी जयंती नहीं जन्मोत्सव मनाते हैं। क्या लोगों का यह तर्क उचित है और क्या हमें जयंती कहना छोड़ देना चाहिए?
जयं पुण्यं च कुरुते जयन्तीमिति तां विदुः- (स्कन्दमहापुराण, तिथ्यादितत्त्व)
अर्थात जो जय और पुण्य प्रदान करे उसे जयन्ती कहते हैं। जयंती का अर्थ होता है जिसकी विजय पताका निरंतर लहराती रहती है। जिसकी सर्वत्र जय जय है। जिनका यश, जिनका जय, जिनका विजय अक्षुण है और नित्य है, सदा विद्यमान है।
जयंती महापुरुषों और भगवानों की ही होती है। नश्वर शरीर धारियों के लिए जयंती नहीं है। जिनकी कीर्ति, यश, सौभाग्य, विजय निरंतर हो और जिसका नाश न हो सके उसे जयंती कहते हैं। आदिशक्ति महामाया जगतजननी का नाम भी जयंती है।
जयंतीनामपूर्वोक्ता हनूमज्जन्मवासरः तस्यां भक्त्या कपिवरं नरा नियतमानसाः।
जपंतश्चार्चयंतश्च पुष्पपाद्यार्घ्यचंदनैः धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैः फलैर्ब्राह्मणभोजनैः।
समंत्रार्घ्यप्रदानैश्च नृत्यगीतैस्तथैव च तस्मान्मनोरथान्सर्वान्लभंते नात्र संशयः॥
हनुमान के जन्म का दिन जयंती नाम से बताया गया है। इस दिन भक्तिपूर्वक, मन को वश में करके, पुष्प, अर्घ्य चंदन से, धूप, दीप से, नैवेद्य से, फलों से, ब्रह्मणों को भोजन कराने से, मंत्रपूर्वक अर्घ्य प्रदान करने से तथा नृत्यगीता आदि से कपिश्रेष्ठ का जप, अर्चना करते हुए मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त करते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।
कृष्णजन्माष्टमी को कृष्णजन्मोत्सव भी कहते हैं। किन्तु जब यही अष्टमी अर्धरात्रि में पहले या बाद में रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो जाती है तब इसकी संज्ञा कृष्ण जयन्ती हो जाती है-
रोहिणीसहिता कृष्णा मासे च श्रावणेSष्टमी ।
अर्द्धरात्रादधश्चोर्ध्वं कलयापि यदा भवेत्।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्वपापप्रणाशिनी ।।
और इस जयन्ती व्रत का महत्त्व कृष्णजन्माष्टमी अर्थात् रोहिणीरहित कृष्णजन्माष्टमी से अधिक शास्त्रसिद्ध है। इससे यह सिद्ध हो गया कि जयन्ती जन्मोत्सव ही है। योगविशेष में जन्मोत्सव की संज्ञा जयन्ती हो जाती है। यदि रोहिणी का योग न हो तो जन्माष्टमी की संज्ञा जयन्ती नहीं हो सकती-
चन्द्रोदयेSष्टमी पूर्वा न रोहिणी भवेद् यदि।
तदा जन्माष्टमी सा च न जयन्तीति कथ्यते॥- नारदीयसंहिता
अयोध्या में श्रीरामानन्द सम्प्रदाय के सन्त कार्तिक मास में स्वाती नक्षत्रयुक्त कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को हनुमान् जी महाराज की जयन्ती मनाते हैं-
“स्वात्यां कुजे शैवतिथौ तु कार्तिके कृष्णेSञ्जनागर्भत एव मेषके ।
श्रीमान् कपीट्प्रादुरभूत् परन्तपो व्रतादिना तत्र तदुत्सवं चरेत् ॥ -वैष्णवमताब्जभास्कर
इसलिए हनुमज्जयन्ती नाम शास्त्रप्रमाणानुमोदित ही है। हनुमान जी की कीर्ति, यश, विजय पताका, भक्ति, ज्ञान , विज्ञान, जय निरंतर और नित्य है, इसलिए इनकी जयंती मनाई जाती है। जयंती का प्रयोग मुख्यत: किसी घटना के घटित होने के दिन की, आगे आने वाले वर्षों में पुनरावृत्ति को दर्शाने के लिए करते हैं। जैसे रजत जयंती, स्वर्ण जयंती, हीरक जयंती।
यदि हम इस प्रकार से सोचने लगे तो फिर नृसिंह भगवान, वामन भगवान और मत्स्य अवतार के प्रकटोत्सव को भी क्या जन्मोत्सव कहें, जबकि अब तक हम कहते आए हैं- नृसिंह जयंती, वामन जयंती, मत्स्य जयंती इत्यादि। भगवान के सभी अवतारों की जयंती मनाई जाती है।
जयंती मृत्यु से नहीं, उनके नित्य, सदा विद्यमान, अक्षुण, कभी न नष्ट होने वाली कीर्ति और जयत्व के कारण मनाई जाती है। जन्मोत्सव साधारण से लोगों का मनाया जाता है और जयंती महान लोगों और दिव्य पुरुषों की मनाई जाती है।
साभार: पूज्य आचार्य सियारामदास नैयायिक जी महाराज